15 जून 2011

विश्वास का संकट है असली खतरा

हमें आप पर विश्वास नहीं और आपको हम पर नहीं। अगर विश्वास कर भी लें तो भरोसा कायम नहीं होता। अब तो परिवार के सदस्य भी एक दूसरे पर ज्यादा विश्वास नहीं करने लगे हैं। कारोबारी और ग्राहकी का रिश्ता तो पहले से ही 'अविश्वास' के बंधन पर चल रहा है। यहां तक कि अब तो प्रेमी-प्रेमिका और पति-पत्नी भी एक-दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने लगे हैं। पहले से ही बेहद नाजुक विश्वास की डोर अब हर स्तर पर लगातार कमजोर होती प्रतीत हो रही है। यानी हर तरफ विश्वास पर खतरा मंडरा रहा है। इन सबके बीच जनता का अपनी सरकार या अपने नेता पर कैसे विश्वास कायम रह सकता है? दूसरे शब्दों में कहें तो हम और हमारा पूरा समाज 'फेथ डिफिसीट' यानी 'विश्वास का संकट' के दौर से गुजर रहा है।

वर्तमान व्यवस्था से हुआ मोह भंग

विश्वास का यही संकट अपने देश की पूरी व्यवस्था से है। आज हम अपने देश के लोकतंत्र पर कितनों भी गर्व करें लेकिन इस प्रणाली से जनता का विश्वास तेजी से उठ रहा है। पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही लोगों का मोह भंग हो रहा है। नेता पहले ही जनता का विश्वास खो चुके हैं। चुनी हुई सरकार में लोगों का विश्वास नहीं बचा है। तो फिर लोकतंत्र में हमारा विश्वास कैसे कायम रहेगा? दूसरी तरफ सरकार कह रही है आम लोग और तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता लोकतंत्र के लिए खतरा है। सरकार की नजर में अन्ना हजारे, उनके साथियों और उनको समर्थन दे रहे आम लोग लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुके हैं। इनकी गतिविधियों से लोकतांत्रिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास उठ जाएगा। लेकिन जिस व्यवस्था से हमारा विश्वास पहले ही उठ चुका है उसे और कितना ऊपर उठाया जाए।

वेबफाई के किस्से अब हो गए आम
नेता और जनता के बीच वेबफाई के किस्से अब आम हो गए हैं। और सभी लोग समझ चुके हैं कि नेता हमें धोखा देने और वेबकूफ बनाने के लिए ही बना है। इनकी कथनी और करनी में भारी फर्क है। वास्तव में पूरी व्यवस्था में विश्वास का संकट पैदा करने वाला असली खिलाड़ी यही है। दूसरी तरफ, प्रशासनिक व्यवस्था विश्वास के लायक नहीं बची है। लोगों को सुरक्षा का भरोसा देने वाली पुलिस पर लोग कैसे विश्वास करे? अपने हक की लड़ाई लड़ रहे किसानों पर वह गोली बरसाती है, नाबालिक बच्ची के साथ बलात्कार करने के बाद उसे मारकर दफना देती है, पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने पर उसे जान से मारदेने की धमकी दी जाी है, वगैरह..वगैरह..। इस तरह की घटनाओं की फेहरिस्त लंबी है। जरा सोचें, कैसे करें पुलिस और प्रशासन पर विश्वास?

न्याय के मंदिर से भी टूट रहा भरोसा
लोगों की अंतिम आस न्यायपालिका से रहती है। पर सब लोग जानते हैं कि मुकदमा तो पैसों का खेल है। पैसे के बल पर मनचाहा केस बनवा सकते हैं, किसी केस में आपका नाम है तो उसे कटवा सकते हैं या फिर मोटी रकम देकर अच्छा वकील चुन सकते हैं जो अपने चतुर दिमाग का इस्तेमाल करते हुए कानून की मनमर्जी व्याख्या कर फैसला अपने हक में ले जाते हैं। बात इससे भी नहीं बनी तो जज साहब हैं न। प्राइवेट में उनसे मिलकर पहले ही फैसले की कॉपी तैयार करा सकते हैं और अगले दिन अदालत में मनमुताबिक फैसले की घोषणा हो जाएगी। बस इसके लिए खर्च करने होंगे बेहिसाब धन। बात यहां भी नहीं बनी तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट है ना। फैसलों को अलटने-पलटने में ये अदालत माहिर हैं। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे- एक ही कानून, एक ही मामला, मामले से जुड़े वही लोग, सबूत भी कुल मिलाकर एक जैसा पर अदालत के फैसले अलग-अलग। मतलब जज बदला, कोर्ट बदला तो मुकदमे की सुनवाई का नजरिया ही बदल गया। एक अदालत की नजर में कोई व्यक्ति दोषी और उसे दूसरी अदालत में उसे बाय इज्जत बरी कर दिया जाता है। आप किस पर करेंगे विश्वास? अपने देश के महान कानून पर, माननीय और सर्वोच्च विश्वसनीय न्यायालय पर या फिर भगवान तुल्य न्यायाधीश पर? विश्वास कीजिए मगर न्याय का भरोसा मत कीजिए, क्योंकि यह भरोसा कभी भी टूट सकता है।

10 जून 2011

हर तरफ पिस रहा है आम आदमी

भ्रष्टïाचार और काले धन की वापसी को लेकर अन्ना और बाबा रामदेव के आंदोलन के पीछे आरएसएस या जिसका भी हाथ हो लेकिन इतना तो सत्य है कि इसे जनता का पर्याप्त समर्थन मिल रहा है। हो भी क्यों नहीं, आम जनता सभी स्तर पर व्याप्त भ्रष्टïाचार से त्रस्त हो चुकी है। सरकार में बैठे मंत्री से लेकर नौकरशाह, पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका और अन्य सभी महकमों में रिश्वतखोरी ने मजबूती से अपना पांव जमा लिया है। एक तरफ भ्रष्टïाचार तो दूसरी तरफ महंगाई की इस चक्की में हर तरफ से आम आदमी ही पिस रहा है। तभी तो लोग इसके खिलाफ होने वाले किसी भी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। केंद्र सरकार का यह तर्क कि अन्ना और रामदेव के पीछे आरएसएस, बीजेपी जैसी सांप्रदायिक शक्तियों का हाथ है इसलिए ऐसे आदोलनों को जायज नहीं कह सकते, पूरी तरह बेतुका है।

यहां सवाल सांप्रदायिक शक्तियों का नहीं है बल्कि सवाल भ्रष्टïाचार का है। आम लोग देश में अराजक व्यवस्था से तंग आ चुके हैं। देश का कोई भी नागरिक चाहे वह किसी भी विचारधारा या समुदाय से संबंध क्यों न रखता हो, उसे व्यवस्था की खामियों के खिलाफ बोलने और आवाज उठाने का पूरा अधिकार है। आरएसएस अगर किसी संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त है तो सरकार उसे दंड दे सकती है या संगठन पर प्रतिबंध लगा सकती है। लेकिन इस आधार पर कि भ्रष्टïाचार के खिलाफ आंदोलन को संघ या भाजपा या अन्य कोई सांप्रदायिक शक्तियों का समर्थन प्राप्त है, ऐसे आंदोलनों को खारिज नहीं कर सकते। केंद्र सरकार ने अब तो गांधी वादी अन्ना हजारे और उनके साथियों को भी संघ और भाजपा का मुखौटा बताना शुरू कर दिया है। वास्तव में केंद्र सरकार एक ही र्फामूले पर काम करने लगी है। वह है कि जो भी व्यक्ति कांग्रेस या उसकी सरकार के खिलाफ बोलेगा, जो भी लोग सरकार की नाकामियों और भ्रष्टïाचार पर अपना मुंह खोलेगा, वह संघ और भाजपा का एजेंट कहलाएगा।

बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए
बकौल केंद्र सरकार, इन जन आंदोलनों को संघ हवा दे रहा है। तो फिर इसमें बुराई क्या है? क्या वास्तव में भ्रष्टïाचार के खिलाफ बोलना भी सांप्रदायिक कदम है? मेरी जानकारी में तो ऐसा पहली बार हो रहा है कि आरएसएस को भ्रष्टïाचार और काले धन जैसे गंभीर मुद्दों खिलाफ आंदोलनों को हवा देने का श्रेय दिया जा रहा है। अगर सचमुच ऐसा हो रहा है तो मैं इसे संघ परिवार के भीतर एक बड़े बदलाव के रूप में देख रहा हूं। इस बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए।

संघ परिवार को अब तक देश में सांप्रदायिक सदभाव बिगाडऩे, हिंदुओं को भड़ाकाने, समाज को पारंपरिक कूरीतियों की ओर धकेलने और कट्टïर हिंदू समाज तैयार करने के तौर पर जाना जाता रहा है। कम से कम बहुत दिनों के बाद ही सही संघ ने राष्टï्रहित से जुड़े मुद्द्े राष्टï्रव्यापि स्तर पर हवा दी है जिसका सरोकार सीधे आम आदमी से है। अगर वास्तव में आरएसएस और उसके संबंद्घ संगठनों ने पारंपरिक मुद्दों, जिसमें राम मंदिर से लेकर मुस्लिम समाज के विरुद्घ आग उगलने जैसे कदम शामिल हैं, को पीछे छोड़ दिया है तो इसे बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए। और यही संघ परिवार और राष्टï्र दोनों के हित में भी होगा।

भाजपा, आरएसएस समेत तमाम ऐसे संगठनों को यह बात को समझ लेनी चाहिए कि जनहित के मुद्दे उठाने पर ही जनता उसका समर्थन कर सकती है। सांप्रदायिक और पारंपरिक मुद्दों के चलते ही ये संगठने हासिये पर चले गए हैं। उधर, राजनीतिक पार्टी होने के बाद भी इन्हीं सब मुद्दों के चलते भाजपा का भी जनाधार सिकुड़ रहा है। बदलाव के लिए यह सबसे बेहतरीन समय है और बेहतर होगा कि संघ और
भाजपा अपना चोला बदले।

03 जून 2011

विकास दर ऊंची पर जीवन की राह मुश्किल

बीते वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान देश की अर्थव्यवस्था 8.5 फीसदी की दर से बढ़ी। इसे उच्च विकास दर की श्रेणी में ही रखा सकता है। वैसे सरकार चालू वित्त वर्ष में भी 8.5 से 9 फीसदी तक की ऊच्च वृद्घि दर हासिल करने का दावा कर रही है। लेकिन बीते वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही (जनवरी-मार्च 2011) में जीडीपी की वृद्घि दर गिरकर 7.8 फीसदी रह गई जबकि एक साल पहले समान तिमाही में जीडीपी की वृद्घि दर 9 फीसदी रही थी। इसके अलावा छह प्रमुख बुनियादी क्षेत्र के उद्योगों की वृद्घि दर भी केवल 5.4 फीसदी पर सिमट गई। इसके अलावा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) भी लगातार महीनों में घटने के संकेत मिल रहे हैं। कुल मिलाकर कहें कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार लगातार घट रही है। इन सबके बावजूद ताजा आंकड़े बताते हैं कि बीते वित्त वर्ष में देश की आर्थिक विकास दर 8.5 फीसदी रही। खास बात यह है कि यह विकास दर कृषि क्षेेत्र के नकारात्मक प्रदर्शन के बाद भी हासिल कर ली गई। तभी सरकार पूरे दावे के साथ यह कह रही है कि खेती-बारी को छोड़ भी दें तो हम ऊंची विकास दर हासिल करने में सक्षम है।

पर किसे मिल रहा है उच्च विकास का लाभ
सवाल यह उठता है कि ऊंची विकास दर का लाभ किसे मिल रहा है? एक ओर तो अर्थव्यवस्था तेज रफ्तार से आगे बढ़ रही है पर दूसरी तरफ लोगों की जिंदगी और मुश्किल होती जा रही है। आर्थिक विकास का सीधा सा मतलब होता है कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो। पर यहां तो जीवन की राह और कठिन हो गई है। इसकी एक तस्वीर देखिए- महंगाई चरम पर है, पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। बाजार में खाद्य पदार्थों और अन्य उपयोगी वस्तुओं की किल्लत बनी हुई है। ऊंची मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने के लिए बैंकों ने ब्याज दरें दी है, इसके चलते लोगों के लिए कर्ज लेकर घर, कार आदि खरीदना अब बेहद महंगा पड़ेगा। ब्याज दर बढऩा उद्योग जगत के लिए भी भारी पड़ रहा है। औद्योगिक उत्पादन घटने के पीछे उद्योग जगत ने साफ तौर पर महंगे ब्याज को जिम्मेदार ठहराया है। पंूजी की कमी के चलते कंपनियों की विस्तार योजनाएं भी ठप पड़ी है। परिणामस्वरूप उद्योगों में रोजगार के नए अवसर बिल्कुल बंद हो गए हैं। यानी पढ़े लिखे और गैर पढ़े लिखे सबके लिए रोजगार का संकट है। जिन लोगों के पास नौकरी है उसके ऊपर भी हमेशा तलवार लटकती रहती है। बाजार में थोड़ा सा उतार-चढ़ाव आते ही कंपनियां सीधे कर्मचारियों की छंटनी की बात करने लगती है। सामाजिक सुरक्षा नाम की चीज नहीं बची है। कंपनियों को आकर्षित करने के लिए सरकारों ने श्रम कानून को बिल्कुल ढीला छोड़ दिया है। यानी हर तरफ असुरक्षा और मुश्किलें बरकरार है। अन्य सामाजिक योजनाओं की स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। ऐसे में हम कैसे कह सकती है कि उच्च विकास दर देश के ह$क में है। आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं और मजदूर भूख के मारे दम तोड़ रहे हैं। पिछले दस सालों से इनकी स्थिति जहां थी वे इससे और नीचे अी आए हैं।

कंपनियां मालामाल, कर्मचारी पैमाल
हां उच्च विकास दर का लाभ सरकार और कंपनियों को मिला है। सरकार को अपनी पीठ थपथपाने के लिए उच्चा विकास दर का बहाना है। दूसरी तरफ कॉर्पोरेट सेक्टर की चांदी हो रही है। कंपनियों के लाभ दोगने-तीनगुने की बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन उसमें काम करने वाले कर्मचारियों को क्या मिल रहा है? कॉस्ट कटिंग और आर्थिक मंदी का हवाला देकर वे कर्मचारियों को बाहर का दरवाजा दिखा रही है या उनसे ज्यादा काम ले रही है।