03 अगस्त 2011

अमेरिकी कर्ज संकट से आर्थिक मंदी का खतरा

अमेरिका का कर्ज संकट दुनिया के लिए एक बड़े खतरे का संकेत है। हालांकि उसका तात्कालिक कर्ज संकट रिपब्लिकनों और डेमोक्रेट्स की आम सहमति से टल गया है, लेकिन खतरा समाप्त नहीं हुआ है। समझौते के पहले चरण में कर्ज लेने की सीमा में 900 बिलियन डॉलर की छूट के एवज में सरकारी खर्च में उतने की ही कटौती की जाएगी। दूसरे चरण के तहत कांग्रेस की एक सुपर कमेटी नवंबर तक 1.5 अरब डॉलर तक की बचत के उपाय सुझाएगी। अमेरिका आज कर्ज के जिस जाल में फंसा है उससे निकलने का कोई उपाय उसे दिख नहीं रहा है।

अमेरिका के आर्थिक संकट का असर भारत पाकिस्तान जैसे एशियाई देशों के साथ-साथ पूरी दुनिया पर पड़ना तय है। वर्तमान वैश्विक युग में दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। इसका असर उन देशों पर अधिक पड़ेगा जिनके साथ अमेरिका का व्यापार अधिक होता है। अमेरिका का आर्थिक संकट दुनिया के कई देशों को मंदी की चपेट में ला सकता है। अमेरिकी सरकार का घरेलू कर्ज इतना ज्यादा है कि हर सप्ताह करीब 90 अरब डॉलर की देनदारी (अगस्त में 500 अरब डॉलर) निकल रही है। अमेरिका को अपने जीडीपी अनुपात में करीब 18 फीसदी राशि बकाया कर्ज के पुनर्वित्त यानी रिफाइनेंस के लिए चाहिए।

इसका मतलब है कि अमेरिका बड़े ऋण जाल में फंस चुका है। अमेरिका के लिए वापसी अब लगभग नामुमकिन है और उबरने का हर इलाज उसे कमजोर ही करेगा। अमेरिका में मंदी की शुरुआत वर्ष 2008 से हुई थी। इस मंदी की चपेट में जब अमेरिका के बड़े-बड़े कारपोरेट एक-एक करके धराशायी होने लगे तो अमेरिकी सरकार ने इनके लिए अपने खजाने के दरवाजे खोल दिए। उसने अरबों डॉलर के बेलआउट पैकेज देकर बैंक ऑॅफ अमेरिका, सिटीग्रुप और एआइजी जैसे वित्तीय संस्थानों के साथ ही आटो दिग्गज जनरल मोटर्स जैसी कई कंपनियों को बचाया। इस राहत पैकेज से अमेरिकी कारपोरेट तो मंदी के भंवर से निकल आया, मगर अपनी अर्थव्यवस्था को उबारने की कोशिश में अमेरिकी सरकार ने खर्चे इतने ज्यादा बढ़ा दिए कि कर्जे की तय सीमा भी पार होने वाली है।

अमेरिकी संविधान में कर्ज की तय सीमा 14,300 अरब डॉलर है। भारतीय मुद्रा में यह रकम 6,34,900 अरब रुपये बैठती है। अब अमेरिका चाहे कर्ज की सीमा बढ़ाए या न बढ़ाए दोनों ही हालत में अमेरिका की ट्रिपल ए रेटिंग घट जाएगी। अमेरिका की रेटिंग में कमी एक ऐतिहासिक फैसला होगा, क्योंकि अमेरिकी बांड कर्ज के बाजार में सोने से ज्यादा खरे और सबसे मजबूत जमानत माने जाते हैं। रेटिंग घटते ही अमेरिका में ब्याज दर बढ़ेगी जो कर्ज के पहाड़ को काटने की राह और मुश्किल कर देगी। इसका असर उसके व्यापार पर पड़ेगा। अमेरिका का वार्षिक बजट घाटा डेढ़ खरब डॉलर है। कर्ज संकट से निपटने के लिए कर्ज लेने की क्षमता बढ़ाने का काम अमेरिकी सीनेट में आमतौर पर होता रहा है, लेकिन इस बार रिपब्लिकन पार्टी कर्ज बढ़ाने के मुद्दे पर कड़ा रुख अपना रही है। रिपब्लिकन चाहते हैं कि सरकार टैक्स में कोई बढ़ोतरी न करे, जबकि डेमोक्रेट का मानना है कि गरीबों, बूढ़ों और अन्य लोगों को पेंशन योजना के लिए पैसा टैक्स बढ़ोतरी से हासिल किया जाए।

अमेरिकी सरकार एक निश्चित सीमा तक कर्ज लेने के कानूनी प्रावधान से बंधी है। इससे प्राप्त धन से ही सरकार अपने नियमित खर्चो का भुगतान करती है। इनमें सेना का वेतन, वर्तमान कर्ज पर ब्याज की रकम और स्वास्थ्य सुविधाओं पर होने वाला खर्च भी शामिल है। उसकी कर्ज लेने की 14.3 अरब डॉलर की सीमा मई में ही खत्म हो चुकी थी। वित्त मंत्री टिमोथी गीथनर ने सरकारी पेंशन योजनाओं के लिए किए जाने वाले भुगतान को आगे बढ़ाने के लिए समय सीमा को दो अगस्त तक बढ़ाने जैसे कदमों का सहारा लिया था।

रिपब्लिकन और कुछ विश्लेषकों का मानना है कि दो अगस्त के बाद भी सरकार कुछ दिन और खर्चे चला सकती है, लेकिन इसके बाद कर्ज लेना सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। सभी सरकारी कर्जो को अमेरिकी संविधान के तहत संसद से मंजूरी लेनी पड़ती है। कर्ज लेने की सीमा पहली बार 1917 में शुरू की गई थी, ताकि सरकार प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अपने खर्चे चला सके। उसके बाद यह सीमा कई बार बढ़ाई जा चुकी है।

आमतौर पर यह महज एक औपचारिकता ही होती है। इससे पहले कांग्रेस सरकार के खर्चो और टैक्स को तय करती रही है। ओबामा प्रशासन एक ऐसी असहज स्थिति का सामना कर रहा है जिसमें उसके खर्चे उपलब्ध आमदनी से कहीं ज्यादा हैं। वित्तीय संकट और अमेरिका की दुर्बल अर्थव्यवस्था की वजह से सरकार के खर्चो में तो वृद्धि हुई जबकि टैक्स से मिलने वाला राजस्व बुरी तरह प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप सरकार का घाटा बढ़ गया। प्रतिनिधि सभा पर प्रभुत्व रखने वाले रिपब्लिकन सांसदों का कहना है कि वित्तीय घाटा काबू किया जाए। दोनों ही मानते हैं कि घाटे में कमी करना जरूरी है, लेकिन दोनों पार्टियों की आर्थिक नीतियां अलग हैं। सीनेटर के एक समूह ने खर्चो में कटौती और टैक्स बढ़ाने का प्रस्ताव रखा था। जहां रिपब्लिकन सांसद खर्च में और अधिक कटौती की मंाग कर रहे हैं, वहीं डेमोक्रेट चाहते हैं कि खर्चो में कटौती न हो, बल्कि कारपोरेट सेक्टर पर अधिक टैक्स लगाकर कर्ज संकट से उबरने का रास्ता निकाला जाए।

अमेरिकी सीनेट ने देश की कर्ज सीमा को बढ़ाने वाला बिल खारिज कर दिया था। डेमोक्रेटिक पार्टी की बहुमत वाली सीनेट में इस बिल के गिरने की आशंका पहले से ही जताई जा रही थी। पर अब उसने सरकारी खर्चो में कटौती की शर्त के साथ कर्ज की सीमा बढ़ाए जाने पर सहमति प्रदान कर दी है। गौरतलब है कि अगर दो अगस्त तक ये मसला नहीं सुलझता तो अमेरिका में नकदी की उपलब्धता का संकट पैदा हो जाता। साथ ही अमेरिका की कर्ज लौटाने की क्षमता भी प्रभावित होगी।

इस बिल को लेकर रिपब्लिकन और डेमोके्रटिक पार्टी के बीच भारी मतभेद रहे। रिपब्लिकन पार्टी चाहती है कि अल्पकालिक कर्जो की सीमा 900 बिलियन डॉलर तक की जाए, लेकिन डेमोक्रेट्स इस सीमा को बढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चेतावनी दी थी कि अगर राजनीतिक दलों ने देश के कर्ज संकट को निपटाने के उपायों पर जल्द समझौता नहीं किया तो सभी अमेरिकी लोगों को परेशान होना पड़ेगा।

उन्होंने अमेरिकी लोगों से आग्रह किया था कि वे राजनेताओं पर समय रहते अपने मतभेद दूर करने का दबाव बढ़ाएं, क्योंकि इस संकट के कारण अमेरिका की साख पर असर पड़ सकता है। ओबामा ने इस बारे में दोनों पक्षों से समझौता कर किसी तरह सुलह पर पहुंचने का आह्वान किया था। फिलहाल यह संकट टल गया है पर चिंता बरकरार है। अमेरिकी मंदी का खतरा यूरोप तक पहुंच गया और अब एशियाई देश भी इसकी चपेट में आ सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नई प्रमुख क्रिस्टीना लगार्द ने यूरोपीय नेताओं को चेतावनी दी है कि यूरो जोन की आर्थिक समस्याओं की वजह से वहां सामाजिक अस्थिरता का खतरा पैदा हो सकता है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड में ऋण संकट के बाद इटली और स्पेन के ऊपर भी इसका खतरा मंडरा रहा है। हाल ही में ग्रीस के लिए जारी किए गए 96 खरब डॉलर के राहत पैकेज के बावजूद आर्थिक संकट का खतरा खत्म नहीं हुआ है। मध्य-पूर्व के देशों और उत्तर अफ्रीका में राजनीतिक उथल-पुथल जैसी सामाजिक समस्याएं भी इन उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय हैं।

जहां एक तरफ युवा बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे हैं तो दूसरी ओर बुजुर्ग अपने स्वास्थ्य और पेंशन सुविधाओं को बचाने को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। इन दोनों ही समस्याओं के चलते पीढि़यों के बीच संघर्ष का सामना दिख सकता है। वास्तव में आज दुनिया एक नए तरह के वैश्विक संकट की ओर बढ़ रही है जिसकी सबसे ज्यादा कीमत गरीब देशों को चुकानी पड़ रही है।

15 जून 2011

विश्वास का संकट है असली खतरा

हमें आप पर विश्वास नहीं और आपको हम पर नहीं। अगर विश्वास कर भी लें तो भरोसा कायम नहीं होता। अब तो परिवार के सदस्य भी एक दूसरे पर ज्यादा विश्वास नहीं करने लगे हैं। कारोबारी और ग्राहकी का रिश्ता तो पहले से ही 'अविश्वास' के बंधन पर चल रहा है। यहां तक कि अब तो प्रेमी-प्रेमिका और पति-पत्नी भी एक-दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने लगे हैं। पहले से ही बेहद नाजुक विश्वास की डोर अब हर स्तर पर लगातार कमजोर होती प्रतीत हो रही है। यानी हर तरफ विश्वास पर खतरा मंडरा रहा है। इन सबके बीच जनता का अपनी सरकार या अपने नेता पर कैसे विश्वास कायम रह सकता है? दूसरे शब्दों में कहें तो हम और हमारा पूरा समाज 'फेथ डिफिसीट' यानी 'विश्वास का संकट' के दौर से गुजर रहा है।

वर्तमान व्यवस्था से हुआ मोह भंग

विश्वास का यही संकट अपने देश की पूरी व्यवस्था से है। आज हम अपने देश के लोकतंत्र पर कितनों भी गर्व करें लेकिन इस प्रणाली से जनता का विश्वास तेजी से उठ रहा है। पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही लोगों का मोह भंग हो रहा है। नेता पहले ही जनता का विश्वास खो चुके हैं। चुनी हुई सरकार में लोगों का विश्वास नहीं बचा है। तो फिर लोकतंत्र में हमारा विश्वास कैसे कायम रहेगा? दूसरी तरफ सरकार कह रही है आम लोग और तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता लोकतंत्र के लिए खतरा है। सरकार की नजर में अन्ना हजारे, उनके साथियों और उनको समर्थन दे रहे आम लोग लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुके हैं। इनकी गतिविधियों से लोकतांत्रिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास उठ जाएगा। लेकिन जिस व्यवस्था से हमारा विश्वास पहले ही उठ चुका है उसे और कितना ऊपर उठाया जाए।

वेबफाई के किस्से अब हो गए आम
नेता और जनता के बीच वेबफाई के किस्से अब आम हो गए हैं। और सभी लोग समझ चुके हैं कि नेता हमें धोखा देने और वेबकूफ बनाने के लिए ही बना है। इनकी कथनी और करनी में भारी फर्क है। वास्तव में पूरी व्यवस्था में विश्वास का संकट पैदा करने वाला असली खिलाड़ी यही है। दूसरी तरफ, प्रशासनिक व्यवस्था विश्वास के लायक नहीं बची है। लोगों को सुरक्षा का भरोसा देने वाली पुलिस पर लोग कैसे विश्वास करे? अपने हक की लड़ाई लड़ रहे किसानों पर वह गोली बरसाती है, नाबालिक बच्ची के साथ बलात्कार करने के बाद उसे मारकर दफना देती है, पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने पर उसे जान से मारदेने की धमकी दी जाी है, वगैरह..वगैरह..। इस तरह की घटनाओं की फेहरिस्त लंबी है। जरा सोचें, कैसे करें पुलिस और प्रशासन पर विश्वास?

न्याय के मंदिर से भी टूट रहा भरोसा
लोगों की अंतिम आस न्यायपालिका से रहती है। पर सब लोग जानते हैं कि मुकदमा तो पैसों का खेल है। पैसे के बल पर मनचाहा केस बनवा सकते हैं, किसी केस में आपका नाम है तो उसे कटवा सकते हैं या फिर मोटी रकम देकर अच्छा वकील चुन सकते हैं जो अपने चतुर दिमाग का इस्तेमाल करते हुए कानून की मनमर्जी व्याख्या कर फैसला अपने हक में ले जाते हैं। बात इससे भी नहीं बनी तो जज साहब हैं न। प्राइवेट में उनसे मिलकर पहले ही फैसले की कॉपी तैयार करा सकते हैं और अगले दिन अदालत में मनमुताबिक फैसले की घोषणा हो जाएगी। बस इसके लिए खर्च करने होंगे बेहिसाब धन। बात यहां भी नहीं बनी तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट है ना। फैसलों को अलटने-पलटने में ये अदालत माहिर हैं। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे- एक ही कानून, एक ही मामला, मामले से जुड़े वही लोग, सबूत भी कुल मिलाकर एक जैसा पर अदालत के फैसले अलग-अलग। मतलब जज बदला, कोर्ट बदला तो मुकदमे की सुनवाई का नजरिया ही बदल गया। एक अदालत की नजर में कोई व्यक्ति दोषी और उसे दूसरी अदालत में उसे बाय इज्जत बरी कर दिया जाता है। आप किस पर करेंगे विश्वास? अपने देश के महान कानून पर, माननीय और सर्वोच्च विश्वसनीय न्यायालय पर या फिर भगवान तुल्य न्यायाधीश पर? विश्वास कीजिए मगर न्याय का भरोसा मत कीजिए, क्योंकि यह भरोसा कभी भी टूट सकता है।

10 जून 2011

हर तरफ पिस रहा है आम आदमी

भ्रष्टïाचार और काले धन की वापसी को लेकर अन्ना और बाबा रामदेव के आंदोलन के पीछे आरएसएस या जिसका भी हाथ हो लेकिन इतना तो सत्य है कि इसे जनता का पर्याप्त समर्थन मिल रहा है। हो भी क्यों नहीं, आम जनता सभी स्तर पर व्याप्त भ्रष्टïाचार से त्रस्त हो चुकी है। सरकार में बैठे मंत्री से लेकर नौकरशाह, पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका और अन्य सभी महकमों में रिश्वतखोरी ने मजबूती से अपना पांव जमा लिया है। एक तरफ भ्रष्टïाचार तो दूसरी तरफ महंगाई की इस चक्की में हर तरफ से आम आदमी ही पिस रहा है। तभी तो लोग इसके खिलाफ होने वाले किसी भी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। केंद्र सरकार का यह तर्क कि अन्ना और रामदेव के पीछे आरएसएस, बीजेपी जैसी सांप्रदायिक शक्तियों का हाथ है इसलिए ऐसे आदोलनों को जायज नहीं कह सकते, पूरी तरह बेतुका है।

यहां सवाल सांप्रदायिक शक्तियों का नहीं है बल्कि सवाल भ्रष्टïाचार का है। आम लोग देश में अराजक व्यवस्था से तंग आ चुके हैं। देश का कोई भी नागरिक चाहे वह किसी भी विचारधारा या समुदाय से संबंध क्यों न रखता हो, उसे व्यवस्था की खामियों के खिलाफ बोलने और आवाज उठाने का पूरा अधिकार है। आरएसएस अगर किसी संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त है तो सरकार उसे दंड दे सकती है या संगठन पर प्रतिबंध लगा सकती है। लेकिन इस आधार पर कि भ्रष्टïाचार के खिलाफ आंदोलन को संघ या भाजपा या अन्य कोई सांप्रदायिक शक्तियों का समर्थन प्राप्त है, ऐसे आंदोलनों को खारिज नहीं कर सकते। केंद्र सरकार ने अब तो गांधी वादी अन्ना हजारे और उनके साथियों को भी संघ और भाजपा का मुखौटा बताना शुरू कर दिया है। वास्तव में केंद्र सरकार एक ही र्फामूले पर काम करने लगी है। वह है कि जो भी व्यक्ति कांग्रेस या उसकी सरकार के खिलाफ बोलेगा, जो भी लोग सरकार की नाकामियों और भ्रष्टïाचार पर अपना मुंह खोलेगा, वह संघ और भाजपा का एजेंट कहलाएगा।

बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए
बकौल केंद्र सरकार, इन जन आंदोलनों को संघ हवा दे रहा है। तो फिर इसमें बुराई क्या है? क्या वास्तव में भ्रष्टïाचार के खिलाफ बोलना भी सांप्रदायिक कदम है? मेरी जानकारी में तो ऐसा पहली बार हो रहा है कि आरएसएस को भ्रष्टïाचार और काले धन जैसे गंभीर मुद्दों खिलाफ आंदोलनों को हवा देने का श्रेय दिया जा रहा है। अगर सचमुच ऐसा हो रहा है तो मैं इसे संघ परिवार के भीतर एक बड़े बदलाव के रूप में देख रहा हूं। इस बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए।

संघ परिवार को अब तक देश में सांप्रदायिक सदभाव बिगाडऩे, हिंदुओं को भड़ाकाने, समाज को पारंपरिक कूरीतियों की ओर धकेलने और कट्टïर हिंदू समाज तैयार करने के तौर पर जाना जाता रहा है। कम से कम बहुत दिनों के बाद ही सही संघ ने राष्टï्रहित से जुड़े मुद्द्े राष्टï्रव्यापि स्तर पर हवा दी है जिसका सरोकार सीधे आम आदमी से है। अगर वास्तव में आरएसएस और उसके संबंद्घ संगठनों ने पारंपरिक मुद्दों, जिसमें राम मंदिर से लेकर मुस्लिम समाज के विरुद्घ आग उगलने जैसे कदम शामिल हैं, को पीछे छोड़ दिया है तो इसे बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए। और यही संघ परिवार और राष्टï्र दोनों के हित में भी होगा।

भाजपा, आरएसएस समेत तमाम ऐसे संगठनों को यह बात को समझ लेनी चाहिए कि जनहित के मुद्दे उठाने पर ही जनता उसका समर्थन कर सकती है। सांप्रदायिक और पारंपरिक मुद्दों के चलते ही ये संगठने हासिये पर चले गए हैं। उधर, राजनीतिक पार्टी होने के बाद भी इन्हीं सब मुद्दों के चलते भाजपा का भी जनाधार सिकुड़ रहा है। बदलाव के लिए यह सबसे बेहतरीन समय है और बेहतर होगा कि संघ और
भाजपा अपना चोला बदले।

03 जून 2011

विकास दर ऊंची पर जीवन की राह मुश्किल

बीते वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान देश की अर्थव्यवस्था 8.5 फीसदी की दर से बढ़ी। इसे उच्च विकास दर की श्रेणी में ही रखा सकता है। वैसे सरकार चालू वित्त वर्ष में भी 8.5 से 9 फीसदी तक की ऊच्च वृद्घि दर हासिल करने का दावा कर रही है। लेकिन बीते वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही (जनवरी-मार्च 2011) में जीडीपी की वृद्घि दर गिरकर 7.8 फीसदी रह गई जबकि एक साल पहले समान तिमाही में जीडीपी की वृद्घि दर 9 फीसदी रही थी। इसके अलावा छह प्रमुख बुनियादी क्षेत्र के उद्योगों की वृद्घि दर भी केवल 5.4 फीसदी पर सिमट गई। इसके अलावा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) भी लगातार महीनों में घटने के संकेत मिल रहे हैं। कुल मिलाकर कहें कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार लगातार घट रही है। इन सबके बावजूद ताजा आंकड़े बताते हैं कि बीते वित्त वर्ष में देश की आर्थिक विकास दर 8.5 फीसदी रही। खास बात यह है कि यह विकास दर कृषि क्षेेत्र के नकारात्मक प्रदर्शन के बाद भी हासिल कर ली गई। तभी सरकार पूरे दावे के साथ यह कह रही है कि खेती-बारी को छोड़ भी दें तो हम ऊंची विकास दर हासिल करने में सक्षम है।

पर किसे मिल रहा है उच्च विकास का लाभ
सवाल यह उठता है कि ऊंची विकास दर का लाभ किसे मिल रहा है? एक ओर तो अर्थव्यवस्था तेज रफ्तार से आगे बढ़ रही है पर दूसरी तरफ लोगों की जिंदगी और मुश्किल होती जा रही है। आर्थिक विकास का सीधा सा मतलब होता है कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो। पर यहां तो जीवन की राह और कठिन हो गई है। इसकी एक तस्वीर देखिए- महंगाई चरम पर है, पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। बाजार में खाद्य पदार्थों और अन्य उपयोगी वस्तुओं की किल्लत बनी हुई है। ऊंची मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने के लिए बैंकों ने ब्याज दरें दी है, इसके चलते लोगों के लिए कर्ज लेकर घर, कार आदि खरीदना अब बेहद महंगा पड़ेगा। ब्याज दर बढऩा उद्योग जगत के लिए भी भारी पड़ रहा है। औद्योगिक उत्पादन घटने के पीछे उद्योग जगत ने साफ तौर पर महंगे ब्याज को जिम्मेदार ठहराया है। पंूजी की कमी के चलते कंपनियों की विस्तार योजनाएं भी ठप पड़ी है। परिणामस्वरूप उद्योगों में रोजगार के नए अवसर बिल्कुल बंद हो गए हैं। यानी पढ़े लिखे और गैर पढ़े लिखे सबके लिए रोजगार का संकट है। जिन लोगों के पास नौकरी है उसके ऊपर भी हमेशा तलवार लटकती रहती है। बाजार में थोड़ा सा उतार-चढ़ाव आते ही कंपनियां सीधे कर्मचारियों की छंटनी की बात करने लगती है। सामाजिक सुरक्षा नाम की चीज नहीं बची है। कंपनियों को आकर्षित करने के लिए सरकारों ने श्रम कानून को बिल्कुल ढीला छोड़ दिया है। यानी हर तरफ असुरक्षा और मुश्किलें बरकरार है। अन्य सामाजिक योजनाओं की स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। ऐसे में हम कैसे कह सकती है कि उच्च विकास दर देश के ह$क में है। आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं और मजदूर भूख के मारे दम तोड़ रहे हैं। पिछले दस सालों से इनकी स्थिति जहां थी वे इससे और नीचे अी आए हैं।

कंपनियां मालामाल, कर्मचारी पैमाल
हां उच्च विकास दर का लाभ सरकार और कंपनियों को मिला है। सरकार को अपनी पीठ थपथपाने के लिए उच्चा विकास दर का बहाना है। दूसरी तरफ कॉर्पोरेट सेक्टर की चांदी हो रही है। कंपनियों के लाभ दोगने-तीनगुने की बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन उसमें काम करने वाले कर्मचारियों को क्या मिल रहा है? कॉस्ट कटिंग और आर्थिक मंदी का हवाला देकर वे कर्मचारियों को बाहर का दरवाजा दिखा रही है या उनसे ज्यादा काम ले रही है।

17 मई 2011

तुम मुझे जमीन दो, मैं तुम्हें गोली दुंगा

विकास परियोजनओं के लिए किसानों की जमीन अधिग्रहण करने के बदले किसानों को केवल मुआवजा राशि देने से काम नहीं चलेगा। दरअसल जमीन किसानों के लिए केवल रोजी-रोटी का जरिया ही नहीं है बल्कि यह उनकी सुरक्षा और पूरे परिवार के भविष्य से भी जुड़ा हुआ है। जमीन हाथ से निकल जाने के बाद उनके पास कुछ भी नहीं बचेगा। सरकार जो मुआवजा राशि दे रही है वह बेहद कम है और साल दो चार साल के बाद इस राशि का खत्म होना तय है। ऐसे में किसानों के सामने भविष्य में रोजी-रोटी का बड़ा संकट मुंह बाए खड़ा हो जाएगा।

सरकार का जो गैर जिम्मेदराना रवैया है उससे नहीं लगता है कि वह किसानों के भविष्य के बारे में कुछ सोच रही है और वह आगे उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करेगी। अगर सरकार वास्तव में किसानों से जमीन लेना चाहती है तो इसके बदले उन्हें भरपूर मुआवजे के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा की गारंटी भी देनी होगी। यानी जमीन के बदले मौजूदा बाजार कीमत पर मुआवजा राशि तो मिले ही इसके अलावा किसानों के लिए जीवन भर पेंशन देने की व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही उस जमीन पर बनने वाली विकास परियोजनाओं में किसानों को हिस्सेदारी दी जाए ताकि भविष्य में भी इससे आय मिलती रहे। यदि जमीन का इस्तेमाल सड़क या अन्य सरकारी कामों के लिए किया जाता है तो सरकार जमीन देने वाले किसान परिवार के सदस्य को सरकारी नौकरी व अन्य सुविधाएं देने का वादा करे। तभी किसान विकास के लिए अपनी जमीन देने के लिए तैयार हो सकते हैं।

लाठी के बल पर सरकार किसानों से छीन रही जमीन
उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना यमुना एक्सप्रेस वे बनाने के लिए कुल 2.5 लाख हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित करने की योजना है। आपको यह जान कर सरकार के खिलाफ भारी गुस्सा आएगा कि एक ओर जहां उसने किसानों से सारी जमीन 800 रुपये प्रति वर्गफुट की दर से ली है तो वही जमीन बिल्डरों, ठेकेदारों और निजी कंपनियों के हाथों 22,000 से 45,000 रुपये प्रति वर्ग फुट की दर बेच रही है। अब ये निजी कंपनियां और बिल्डर उसी जमीन से करोड़ों रुपये बटोरेंगे। जबकि किसानों के हाथ क्या लगेगा? कुछ भी नहीं। 800 रुपये की दर से मिली राशि का भुगतान कब होगा और कैसे होगा कोई नहीं कह सकता लेकिन किसानों की जमीन जबरदस्ती उनसे ले ली गई है। दूसरी तरफ किसान नहीं चाहते कि वह अपनी जमीन मुख्यमंत्री की इस बेहुदा परियोजना में लगाकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाएं। क्योंकि यही जमीन उसकी रोजी-रोटी का जरिया है और यह उसके हाथ से निकल जाने के बाद किसानों के समक्ष भूख से मरने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा।

नहीं गई अंगे्रजीयत मानिसकता
सब कुछ बदला लेकिन अंग्रेजों के जमाने का कानून और अंंग्रेजीयत मानसिकता नहीं बदली। ढेर सारे कानून आज भी अंग्रेज के जमाने के हैं। भूमि अधिग्रहण कानून को ही लीजिए, इसे 1894 ई में अंग्रेजों ने बनाया था। जिसमें साफ तौर पर उल्लेख किया गया है कि देश हित के नाम पर जमीन का अधिग्रहण किसानों की राजी खुशी या जबरदस्ती किया जाएगा। यानी किसान अगर चाहे कि वो अपनी जमीन नहीं देना चाहते हैं तो फिर भी सरकार उनकी जमीन जबरदस्ती ले सकती है। अब सोचिए। आज की सरकार की यह अंग्रेजीयत मानसिकता है या नहीं कि वो आज भी लाठी और बंदुक के बल पर किसानों से उसका जमीन छीन रही है। अंग्रेजों से दो कदम और दूर आज की सरकार ने तो देश हित के नाम पर जमीन किसानों से लेकर निजी कंपनियों, बिल्डरों और भूमाफियाओं को रेबडिय़ों के भाव में बांट रही है। फिर यह काहे का राष्टï्रहित है। कानून को मानना हमारा फर्ज नहीं है। किसानों को किसी भी तरह की परियोजनाओं के लिए अपनी जमीन देने से मना कर देना चाहिए। विकास के लिए जमीन देने का ठेका किसानों ने नहीं ले रखा है।

09 मई 2011

किसानों की जमीन और खून की कोई कीमत नहीं !

विकास के नाम पर जिस तरह किसानों की जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे किसानों का उग्र होना स्वाभाविक है। दरअसल यह विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन हड़पने की यह षड्यंत्र है। सड़क, हाइवे बनाने या उद्योग लगाने के नाम पर बेहद कम मुआवजा देकर किसानों को उनकी जमीन देने के लिए बाध्य किया जाता है। और फिर बाद में ये जमीन उद्योगपतियों के हवाले कर दिया जाता है। इसके बाद किसानों को बुरी तरह से पूरे क्षेत्र से बेदखल कर दिया जाता है। इससे किसानों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाता है।

कैसे करेंगे गुजर-बसर
आज भी किसानों की रोजी रोटी का एक मात्र जरिया उनकी जमीन है। अगर यही उनके हाथ से चली जाएगी तो फिर वे क्या जोत-कोढ़ कर खाएंगे। आधी पेट खाकर सोने के लिए मजबूर किसान जमीन छीन जाने के बाद अपने परिवार का गुजारा कैसे करेंगे? ऐसे में किसान नहीं चाहते कि विकास के नाम पर उनकी जमीन की बली चढ़ाई जाए। आखिर हाइवे बनने या मॉल बनने के लिए किसान अपनी जमीन क्यों दे जबकि विकास का लाभ किसानों को बिल्कुल भी नहीं मिला है। सरकार, नेता, सामाजिम कार्यकर्ता किसी को भी इसकी परवाह नहीं है। अब चूंकि किसान हिंसक आदोलन पर उतर आए हैं तो लोगों को लग रहा है कि भोले-भाले किसानों को कोई उकसा रहा है। वास्तव में किसानों को कोई और नहीं बल्कि सरकार की गलत नीति ही उन्हें हिंसक आंदोलन के लिए उकसा रही है।

केवल मुआवजे से काम नहीं चलेगा
क्या सरकार यह वादा करती है कि विकास के नाम पर जमीन देने वाले किसानों को मुआवजे के अलावा जीवन भर पेंशन के रूप अच्छी खासी राशि दी जाएगी। इसके अलावा उनके परिवार के कम से कम एक सदस्य को सरकारी नौकरी और अन्य सुविधाएं दी जाएगी। साथ ही सरकार उन्हें विकास में भागीदार बनाने का भी वादा करे। तभी किसान अपनी जमीन देने के लिए तैयार हो सकते हैं। अगर सरकार ऐसे वादे नहीं करती है तो फिर किसान अपनी जमीन क्यों दे?

06 मई 2011

कुछ तो शर्म करे सरकार

पिछले दिनों पीएसी की बैठक के दौरान सत्ता पक्ष के सदस्यों का जो रवैया सामने आया वह बेहद असंवैधानिक और अनैतिक था। इससे भी ज्यादा शर्मसार करने वाली बात यह थी कि पूरे घटनाक्रम के निर्माता-निर्देशक केंद्र सरकार के ही चार वरिष्ठï मंत्री थे जो बैठक के दौरान संसद भवन परिसर में ही मौजूद थे और वे पीएसी में शामिल सत्ता पक्ष के सदस्यों से लगातार मोबाइल पर बात करते हुए उन्हें निर्देश दे रहे थे। यानी लोकतंत्र और संसद की गरीमा को तार तार कर देने वाला यह वाकया सरकार के षड्यंत्र से हुआ। इससे जनता में स्पष्टï संदेश गया है कि भ्रष्टïाचार के दलदल में फंसी सरकार नहीं चाहती कि इसकी निष्पक्ष चांज हो और जांच रिपोर्ट जनता के सामने आए। इसके लिए सरकार और उसमें शामिल लोग हर कदम पर जांच को बाधा पहुंचाने और उस पर बेबुनियाद आरोप लगाने का काम कर रहे हैं। कितना अशोभनीय है कि जिस सरकार की जिम्मेदारी देश के संवैधानिक संस्थानों की गरीमा को बनाए रखने और भ्रष्टïाचार पर अंकुश लगाते हुए लोगों को निष्पक्ष शासन मुहैया कराना है वही सरकार पूरे संवैधानिक ढांचे को पूरी तरह बर्बाद करने में जी जान से लगी है।

पीएसी में शामिल सत्ता पक्ष के सदस्यों ने जिस तरह मुरली मनोहर जोशी को अक्ष्यक्ष पद से बेदखल करते हुए सैफुद्दिन सोज को पीएसी का अध्यक्ष मनोनित कर दिया वह पूरी तरह असंवैधानिक था। दरअसल पीएसी का अध्यक्ष नियुक्त करने का अधिकार केवल लोकसभा अध्यक्ष को है, न कि पीएससी में शामिल सदस्य अपने मन से अध्यक्ष मनोनित कर सकता है। दूसरी अहम बात यह है कि पीएसी के अध्यक्ष को लोकसभा का सदस्य होना जरूरी है जबकि सोज लोकसभा के नहीं बल्कि राज्यसभा के सदस्य हैं। ऐसे में सोज को पीएसी का अध्यक्ष मनोनित करना पूरी तरह असंवैधानिक था। कुछ तो शर्म करे सरकार।

02 मई 2011

100 में 90 बेइमान है, फिर भी मेरा देश महान है

कुछ चीजों को लेकर मैं पश्चिमी देशों का कायल रहा हूं। वहां की हर चीजें काफी व्यवस्थित और सभी कार्य समय पर होते हैं। लोग बात-बात पर बेवजह सड़कों पर धरना-प्रदर्शन कर लोगों को परेशान नहीं करते। वहां किसी व्यक्ति या पद के आधार पर देश के संसाधनों का भोग नहीं करते बल्कि संसाधनों का उपयोग नागरिक सुविधाओं के लिए किया जाता है। और सबसे अच्छी बात यह है कि वहां त्वरित फैसले लिए जाते हैं। लेकिन इन सबसे ऊपर की विशेषता यह है कि वहां के लोग लापरवाह होकर भी काफी जिम्मेदार और सतर्क होते हैं। वे हमारी तरह राष्टï्रभक्त नहीं पर देश के साथ कभी धोखा नहीं करते। पश्चिमी देशों की यही विशेषता है और यही उसे हमसे काफी आगे करता है।

इसके विपरीत हम भारतीय झूठे और फरेबी ज्यादा हैं। हमारी कथनी और करनी में छत्तीस का आंकड़ा रहता है। जो चीजें सोचते वह करते नहीं और जो करते उसकी भनक खुद को भी नहीं लगती। बात बात पर देश भक्ति की कसमें खाते हैं लेकिन मौका मिलते ही बेइमानी की सारी हदें तोड़ सकते हैं। यहां हर जगह आपको अव्यवस्था और अराजकता नजर आएगी। व्यक्तिगत काम से लेकर सभी सार्वजनिक कम समय पर हो जाएं तो यह आश्चर्य की बात है। रेलगाडिय़ां कभी समय पर नहीं चलती, सरकारी कार्यालय में कौन काम कितने समय में होगा इसकी कोई गांरटी नहीं है। यानी हर जगह लेट लतीफि। हर जगह अव्यवस्था। सरकारें ऐसे कार्य करती है मानो वह सरकार नहीं बल्कि किसी दूसरे देश के सरकार की गुलाम हो। साफ शब्दों में कहें तो अमेरिका की। बात भी सही है सभी बड़े फैसले बगैर अमेरिका की सहमति से नहीं लिए जाते।

फिर भी ऐसे देश को हमेशा हम महान साबित करने की चेष्ठïा क्यों करते हैं। जिस देश में कि 100 में से 90 बेइमान हैं। पश्चिमी देशों की अच्छाइयों और अपने देश की बुराई का बखान कर हम यह जताना चाहते हैं कि भारत की तुलना में पश्चिमी देश आगे क्यों है। हमें साफगोई से अपनी कमियों से स्वीकार करना होगा। कोई देश या समाज अगर हमसे आगे है तो क्यों है।

कुछ बुराइयां भी है
बहरहाल ऐसा नहीं कि पश्चिमी देश हर मामले में बेहतर है। वहां का खुला और उन्मुक्त समाज अपने आप में कई तरह की परेशानियों की जड़ है। इसके चलते समाज का ताना बाना नष्टï हो रहा है। लेकिन दुखद पहलू यह है कि हम पश्चिमी देशों से अच्छाइयां नहीं बुराइयां ग्रहण करते जा रहे हैं। विशेषकर उसी तरह का खुला परिवार। हम पश्चिमी रहन-सहन अपनाकर दरअसल खुद को आधुनिक कहलाना चाहते हैं जबकि हमारी सोच आज भी घटिया है।

वास्तव में हम आधुनिक तभी कहलाएंगे जब हमारी सोच उन्नत हो केवल रहन सहन का तरीका नहीं।



28 अप्रैल 2011

अन्ना पर कीचड़ उछालने से कुछ नहीं मिलेगा

भ्रष्टïाचार का पानी अब नाक के ऊपर से बह रहा है। देशवासियों के लिए इसे झेल पाना अब काफी मुश्किल है। आखिर लोग किस पर विश्वास करे। सभी तो चोर ही नजर आते हैं। नेता, नौकरशाह, उद्योगपति सभी कोई भ्रष्टïाचार के दलदल में फंसा हुआ मालूम पड़ता है। इन तीनों के गठजोड़ ने पूरे देश की व्यवस्था को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया है। अब तो कुछ पत्रकारों के भी इस जंगलराज में शामिल होने की खबर ने काफी धक्का पहुंचाया है।

आम आदमी जो पहले से काफी कमजोर और असहाय है और बेबस नजर आ रहा है। इस डूबती नैया के बीच अन्ना हजारे नाम का तिनका सामने आ गया है। अन्ना हजारे ने भ्रष्टïाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई की शुरुआत कर लोगों में आशा की एक किरण जगा दी है। लोग इस उम्मीद में है कि यह गांधीवादी शायद देश को भ्रष्टïाचार रूपी दलदल से बाहर निकालने में सक्षम हो। लेकिन अकेला चना भाड नहीं फोड़ सकता। अकेले अन्ना से कुछ नहीं होगा और हम सब देशवासियों का उनका साथ देना होगा।

देखिए न, बेचारे अन्ना बाबा का भी विरोध शुरू हो गया है। फिर हम जैसे थोड़ा बहुत पढ़े-लिखे लोगों में हर चीज का विरोध करने की जन्मजात आदत रही है। आखिर जिस व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन समाज के कल्याण और भ्रष्टï लोगों के खिलाफ लड़ाई में बीता दिए उस व्यक्ति का विरोध करने का क्या औचित्य है? लेकिन लड़ाई अभी शुरू ही हुई है कि बुद्घिजीवि हलकों में इसका विरोध भी शुरू हो गया है। अन्ना हजारे और उनके साथियों पर अनर्गल आरोप लगाकर दरअसल वे भ्रष्टïाचार के खिलाफ लड़ाई की धार को कमजोर करना चाहते हैं। साथ ही देश में भ्रष्टïाचार और अव्यवस्था के खिलाफ उपजे जनाक्रोश को भी दूसरी दिशा में मोडऩे का प्रयास हो रहा है।

दरअसल अन्ना पर कीचड़ उछालने से कुछ नहीं मिलेगा। कुछ लोग तो पूर्वनियोजित एजेंडा के तहत अन्ना की मुहिम का विरोध कर रहे हैं जबकि कुछ लोग आदतन अन्ना के विरोध में लिख रहे हैं। क्योंकि किसी भी काम का विरोध करना ही उसका मूल उद्देश्य है। और वे हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए है। हमें भ्रष्टïाचार के खिलाफ इस महासंग्राम में अन्ना का समर्थन करना चाहिए।

06 अप्रैल 2011

क्रिकेट जीता पर भारत हारा !

क्रिकेट विश्व कप जीत कर भारत विश्व विजेता बन गया है। एक भारतीय होने के नाते मुझे भी टीम की इस उपलब्धी पर गर्व है और मैं टीम को इसके लिए बधाई देता हूं। लेकिन विश्व कप शुरू होने से लेकर जीत के बाद तक के पूरे घटनाक्रम को देखते हुए मेरे मन में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। मुझे लगता है कि इस विश्व कप में केवल क्रिकेट जीता है जबकि देश हार गया है।

खेल नहीं अब कारोबार का खेल
इसके पीछे कई तर्क हैं। क्रिकेट अब केवल खेल भी नहीं रह गया है बल्कि यह तो कारोबार का खेल बन कर रह गया
है। भारतीय उप महाद्वीप पर विश्व कप महाकुंभ के आयोजन का सबसे बड़ा फायदा आईसीसी और बीसीसीआई को मिला जबकि भारत के विश्व कप जीतने से क्रिकेट खिलाड़ी, आयोजक, प्रसरक सभी मालामाल हुए हैं। जीत के बाद तो टीम इंडिया की प्रशंसा में हर तरफ कसीदे पढ़े जा रहे हैं और उनपर चारों ओर से धनवर्षा हो रही है। यहां के लोगों की अंध राष्टï्रीयता की आंधी में देश की सरकार, कंपनियां सभी उड़ रही हैं। टीम में शामिल सदस्यों के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकार, उद्योग जगत, कंपनियां आदि सभी में रुपया, गाड़ी, आलिशान बंगला, पदोन्नति, पुरस्कार आदि बांटने की तो होड़ सी लगी हुई है। केंद्र सरकार ने पुरस्कार राशि को पूरी तरह कर मुक्त करने की घोषणा करने के अलावा आईसीसी को भी 45 करोड़ रुपये की कर से मुक्त दिया। विश्व की सबसे अमीर खेल संस्था आईसीसी ने देश में करीब 700 करोड़ की अंधाधूंध कमाई की उसे कर छूट देने का क्या औचित्य है? मैं पूछता हूं कि सरकार की इस दरियादिली से किसका नुकसान हुआ है? जाहिर तौर पर देश का। जिस देश में बाकी खेलों के लिए रत्ती भर की सुविधाएं नहीं है वहां की सरकार क्रिकेट के नाम पर मनमाना धन लूटा रही है। दरअसल यह क्रिकेट मोह नहीं है बल्कि हर कोई देश में क्रिकेट की अंधी लोकप्रियता को भूनाने में लगी है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि यह खेल मैदान से हटकर अब कॉर्पोरेट टेबल पर खेला जाने लगा है। यह खेल कारोबार राजनीति और माफिया का अड्डï बन चुका है। टीम इंडिया की जीत पर जश्न मनाइए लकिन जोश में होश मत गंवाइए। नहीं तो देर सबेर इसका खामियाजा भुगतने के लिए भी तैयार रहना होगा।

राष्टï्रीयता के नाम पर केवल क्रिकेट ही क्यों ?
ऐसा लगता है आप क्रिकेट मैच नहीं देखते या टीम इंडिया की तारीफदारी नहीं करते हो आप सच्चे देश भक्त नहीं है।
यहां क्रिकेट ही सच्ची राष्टï्रीयता का सर्टिफिकेट है। तभी तो कुछ लोग जो भारत-पाक मैच के दौरान पाकिस्तान टीम का समर्थन करते देखे जाते हैं उन्हें देश द्रोह करार दिया जाता है। क्रिकेट की आड़ में सब कुछ माफ है। चाहे बाकी खेल जहन्नु में जाए। देश के लिए गोल्ड मेडल जीतने वाले खिलाडिय़ों को पुरस्कार के रूप में कितने रुपये मिले? सरकार ने उनकी सुविधाओं के लिए क्या किया? खिलाड़ी लगातार खेल संघों के अडिय़लय रवैये और सुविधा होने का रोना रोते रहते हैं लेकिन इसे सुनने वाला कोई नहीं है। वल्र्ड कप क्या जीत कर हम विश्व विजेता बनने का दावा कर रहे हैं। लेकिन जरा सोचिए ओलंपिक में हम आज भी एक स्वर्ण पदक तक नहीं जीत पाते हैं। हम अपनी इस कमजोरी को छूपाते हैं और क्रिकेट की जीत पर इताराते हैं। क्रिकेट का मतलब पूरा खेल नहीं बल्कि क्रिकेट का मतलब बाकी खेल और खिलाडिय़ों का सत्यानाश है।

28 मार्च 2011

विकास की आंधी में उजड़ रहे हैं गांव

गांव का नाम लेते ही हमारे मन में हरे-भरे खेत खलिहान, नदी-तालाब, बगीचे और एक भरा-पूरा समाज का चित्र उभर जाता है। लेकिन यह अब पूरी तरह वीरान होता जा रहा है। खेत सूखे पड़े हैं, नदी-तालाब का नामो निशान नहीं, बगीचे उजड़ चुके हैं और पक्षियां भी कलरव करना भूल गई हैं। लोगों के सामने पेट भरने तक का संकट है।

रोजी-रोटी के लिए ज्यादातर लोग गांव छोड़ चुके हैं या छोडऩे की तैयारी में है। अधिकांश गांवों में तो केवल महिलाएं और बजुर्ग ही नजर आते हैं। गांवों से लोग तेजी से शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। हम तो पढ़ाई-लिखाई के चक्कर में गांव से दूर शहर की ओर आए और अब रोजगार-धंधे की मजबूरी में यहीं का होकर रह गए हैं। जो लोग पढ़े लिखे नहीं है वे भी काम की तलाश में शहर की ओर भाग रहे हैं। मजबूरीबश, कुछ युवा अगर गांव में नजर भी आ जाते हैं तो वे भी पूरी तरह शहरी रंग में घुल गए हैं। हाथ में मोबाइल, फिल्मी लटके-झटके और आंखों में बेसुमार सपने। लेकिन खेती-बाड़ी में जरा भी उनका दिल नहीं लगता।

आखिर क्यों करे खेती?
मर-मर कर दिन रात काम करो फिर भी आमदनी के नाम पर कुछ भी नहीं। युवाओं ने खेती का भार पूरी तरह अब 60 साल से अधिक उम्र वाले अनुभवी कंधों पर ही छोड़ दिया है। बुजुर्ग भी ज्यादा परिश्रम नहीं कर पाने की मजबूरी में खेती को भगवान भरोसे छोड़ रहे हैं। यह स्थिति अमूमन देश के सभी प्रदेशों और सभी गांवों की है। यह एक तस्वीर है जो बयां करती है कि उच्च विकास दर वाले इस देश में हमारे गांव किस कदर उजड़ रहे हैं।

क्या वास्तव में विकास की जिस दौड़ में हम शामिल हैं उससे सभी लोगों का भला हो रहा है। गांव को उजाड़ कर शहर बसाया जा सकता है लेकिन लोगों का पेट कैसे भरेगा। अनजा उगाने के लिए तो खेती-बाड़ी करनी ही पड़ेगी। लेकिन खेती के प्रति लोगों का जो मोह भंग हो रहा है वह भविष्य में हमारे लिए एक खतरनाक संकेत की ओर इशारा करता है। हम जल्दी नहीं चेते तो आगे स्थिति और गंभीर हो जाएगी।

24 फ़रवरी 2011

खेतों में चलेगा हल,तो मिलेगा अर्थव्यववस्था को बल

वर्तमान यूपीए सरकार के कार्यकाल कृषि क्षेत्र बेहद बुरे दौर से गुजर रहा है। और सरकार के इरादे से साफ लगा रहा है कि वह कृषि क्षेत्र को लेकर तो गंभीर है और ही इस दिशा में कोई कदम उठाने जा रही है। कृषि क्षेत्र में सुधार का एजेंडा तैयार करना आम लोगों के लिए तो जरूरी है ही साथ ही सरकार और देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी उतना ही अहम है। इस बात में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि जब खोतों में चलेगा हल, तभी मिलेगा अर्थव्यवस्था को भी बल।

अब तब महंगाई के मोर्चे पर पूरी तरह चित हो चुकी सरकार के लिए महंगाई से लोगों को राहत दिलाने का यही एक मात्र हथियार है। लेकिन सरकार के रवैये से लगता नहीं है कि वह इस बार भी ऐसा कुछ करने जा रही है क्योंकि उन्हें लोगों की बेहतर जिंदगी से ज्यादा अर्थव्यवस्था की ऊंची विकास दर प्यारी है। बजट सत्र के दौरान सरकार ने साफ तौर पर कह दिया वह महंगाई से तो चिंतित है लेकिन किसी भी शर्त पर ऊंची विकास दर से समझौता नहीं किया जा सकता। सरकार की मंशा जाहिर है कि उसे विकास दर कम करने की शर्त मंजूर नहीं है भले ही आम आदमी महंगाई की इस चक्की में पिस-पिस कर मर जाए। सरकार को आम लोगों की परेशानी से कोई लेना-देना नहीं है।

ऊंची विकास दर को बनाए रखना गलत नहीं है लेकिन कृषि क्षेत्र को बिल्कुल उपेक्षित रखना खतरनाक है। सरकार के इरादे से तो यही लगता है कि केवल विदेशी पूंजी निवेश बढ़ाने और आर्थिक सुधार की गति तेज करने से ऊंची विकास दर आसानी से हासिल की जा सकती है। जबकि सरकार का जोर कृषि क्षेत्र में सुधारों पर बिल्कुल भी नहीं है। सरकार को यह याद रखनी चाहिए कि कृषि क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन से ही हम मजबूत आर्थिक विकास की ओर बढ़ सकेंगे। कृषि उत्पादन बढऩे की स्थिति में ही सरकार को भी महंगाई पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी। देखा जाए तो हाल के दिनों में खाद्य वस्तुओं के बढ़ते दामों ने ही लोगों को सबसे ज्यादा परेशान किया है। अगर देश में कृषि उत्पादन बढ़े तो लोगों को महंगाई से भी राहत मिलेगी और देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।

खेती पर आज भी देश की 67 फीसदी आबादी निर्भर करती है। जब कृषि क्षेत्र का विकास होगा तभी खेती कार्यों से जुड़े लोगों विशेषकर किसानों और मजदूरों की माली हालत सुधरेगी। साथ ही ग्रामीण क्षेत्र क्षेत्र का समग्र विकास संभव होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक विकास के जरिये ही देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता है और इससे ऊंची विकास दर को बनाए रखने में भी आसानी होगी। सरकार को एक बात साफ तौर पर जान लेनी चाहिए कि केवल दिल्ली, मुंबई और अन्य महनगरों में ऊंची-ऊंची इमारतें, चमचमती गाडिय़ां और बहुराष्टï्रीय कंपनियों में काम के लिए दिन रात भागते लोग ही विकास का पैमाना नहीं है। इस हवा-हवाई विकास से सरकार का भ्रम कब तक टूटेगा?