09 मई 2011

किसानों की जमीन और खून की कोई कीमत नहीं !

विकास के नाम पर जिस तरह किसानों की जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे किसानों का उग्र होना स्वाभाविक है। दरअसल यह विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन हड़पने की यह षड्यंत्र है। सड़क, हाइवे बनाने या उद्योग लगाने के नाम पर बेहद कम मुआवजा देकर किसानों को उनकी जमीन देने के लिए बाध्य किया जाता है। और फिर बाद में ये जमीन उद्योगपतियों के हवाले कर दिया जाता है। इसके बाद किसानों को बुरी तरह से पूरे क्षेत्र से बेदखल कर दिया जाता है। इससे किसानों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाता है।

कैसे करेंगे गुजर-बसर
आज भी किसानों की रोजी रोटी का एक मात्र जरिया उनकी जमीन है। अगर यही उनके हाथ से चली जाएगी तो फिर वे क्या जोत-कोढ़ कर खाएंगे। आधी पेट खाकर सोने के लिए मजबूर किसान जमीन छीन जाने के बाद अपने परिवार का गुजारा कैसे करेंगे? ऐसे में किसान नहीं चाहते कि विकास के नाम पर उनकी जमीन की बली चढ़ाई जाए। आखिर हाइवे बनने या मॉल बनने के लिए किसान अपनी जमीन क्यों दे जबकि विकास का लाभ किसानों को बिल्कुल भी नहीं मिला है। सरकार, नेता, सामाजिम कार्यकर्ता किसी को भी इसकी परवाह नहीं है। अब चूंकि किसान हिंसक आदोलन पर उतर आए हैं तो लोगों को लग रहा है कि भोले-भाले किसानों को कोई उकसा रहा है। वास्तव में किसानों को कोई और नहीं बल्कि सरकार की गलत नीति ही उन्हें हिंसक आंदोलन के लिए उकसा रही है।

केवल मुआवजे से काम नहीं चलेगा
क्या सरकार यह वादा करती है कि विकास के नाम पर जमीन देने वाले किसानों को मुआवजे के अलावा जीवन भर पेंशन के रूप अच्छी खासी राशि दी जाएगी। इसके अलावा उनके परिवार के कम से कम एक सदस्य को सरकारी नौकरी और अन्य सुविधाएं दी जाएगी। साथ ही सरकार उन्हें विकास में भागीदार बनाने का भी वादा करे। तभी किसान अपनी जमीन देने के लिए तैयार हो सकते हैं। अगर सरकार ऐसे वादे नहीं करती है तो फिर किसान अपनी जमीन क्यों दे?

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