28 मार्च 2011

विकास की आंधी में उजड़ रहे हैं गांव

गांव का नाम लेते ही हमारे मन में हरे-भरे खेत खलिहान, नदी-तालाब, बगीचे और एक भरा-पूरा समाज का चित्र उभर जाता है। लेकिन यह अब पूरी तरह वीरान होता जा रहा है। खेत सूखे पड़े हैं, नदी-तालाब का नामो निशान नहीं, बगीचे उजड़ चुके हैं और पक्षियां भी कलरव करना भूल गई हैं। लोगों के सामने पेट भरने तक का संकट है।

रोजी-रोटी के लिए ज्यादातर लोग गांव छोड़ चुके हैं या छोडऩे की तैयारी में है। अधिकांश गांवों में तो केवल महिलाएं और बजुर्ग ही नजर आते हैं। गांवों से लोग तेजी से शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। हम तो पढ़ाई-लिखाई के चक्कर में गांव से दूर शहर की ओर आए और अब रोजगार-धंधे की मजबूरी में यहीं का होकर रह गए हैं। जो लोग पढ़े लिखे नहीं है वे भी काम की तलाश में शहर की ओर भाग रहे हैं। मजबूरीबश, कुछ युवा अगर गांव में नजर भी आ जाते हैं तो वे भी पूरी तरह शहरी रंग में घुल गए हैं। हाथ में मोबाइल, फिल्मी लटके-झटके और आंखों में बेसुमार सपने। लेकिन खेती-बाड़ी में जरा भी उनका दिल नहीं लगता।

आखिर क्यों करे खेती?
मर-मर कर दिन रात काम करो फिर भी आमदनी के नाम पर कुछ भी नहीं। युवाओं ने खेती का भार पूरी तरह अब 60 साल से अधिक उम्र वाले अनुभवी कंधों पर ही छोड़ दिया है। बुजुर्ग भी ज्यादा परिश्रम नहीं कर पाने की मजबूरी में खेती को भगवान भरोसे छोड़ रहे हैं। यह स्थिति अमूमन देश के सभी प्रदेशों और सभी गांवों की है। यह एक तस्वीर है जो बयां करती है कि उच्च विकास दर वाले इस देश में हमारे गांव किस कदर उजड़ रहे हैं।

क्या वास्तव में विकास की जिस दौड़ में हम शामिल हैं उससे सभी लोगों का भला हो रहा है। गांव को उजाड़ कर शहर बसाया जा सकता है लेकिन लोगों का पेट कैसे भरेगा। अनजा उगाने के लिए तो खेती-बाड़ी करनी ही पड़ेगी। लेकिन खेती के प्रति लोगों का जो मोह भंग हो रहा है वह भविष्य में हमारे लिए एक खतरनाक संकेत की ओर इशारा करता है। हम जल्दी नहीं चेते तो आगे स्थिति और गंभीर हो जाएगी।