17 मई 2011

तुम मुझे जमीन दो, मैं तुम्हें गोली दुंगा

विकास परियोजनओं के लिए किसानों की जमीन अधिग्रहण करने के बदले किसानों को केवल मुआवजा राशि देने से काम नहीं चलेगा। दरअसल जमीन किसानों के लिए केवल रोजी-रोटी का जरिया ही नहीं है बल्कि यह उनकी सुरक्षा और पूरे परिवार के भविष्य से भी जुड़ा हुआ है। जमीन हाथ से निकल जाने के बाद उनके पास कुछ भी नहीं बचेगा। सरकार जो मुआवजा राशि दे रही है वह बेहद कम है और साल दो चार साल के बाद इस राशि का खत्म होना तय है। ऐसे में किसानों के सामने भविष्य में रोजी-रोटी का बड़ा संकट मुंह बाए खड़ा हो जाएगा।

सरकार का जो गैर जिम्मेदराना रवैया है उससे नहीं लगता है कि वह किसानों के भविष्य के बारे में कुछ सोच रही है और वह आगे उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करेगी। अगर सरकार वास्तव में किसानों से जमीन लेना चाहती है तो इसके बदले उन्हें भरपूर मुआवजे के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा की गारंटी भी देनी होगी। यानी जमीन के बदले मौजूदा बाजार कीमत पर मुआवजा राशि तो मिले ही इसके अलावा किसानों के लिए जीवन भर पेंशन देने की व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही उस जमीन पर बनने वाली विकास परियोजनाओं में किसानों को हिस्सेदारी दी जाए ताकि भविष्य में भी इससे आय मिलती रहे। यदि जमीन का इस्तेमाल सड़क या अन्य सरकारी कामों के लिए किया जाता है तो सरकार जमीन देने वाले किसान परिवार के सदस्य को सरकारी नौकरी व अन्य सुविधाएं देने का वादा करे। तभी किसान विकास के लिए अपनी जमीन देने के लिए तैयार हो सकते हैं।

लाठी के बल पर सरकार किसानों से छीन रही जमीन
उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना यमुना एक्सप्रेस वे बनाने के लिए कुल 2.5 लाख हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित करने की योजना है। आपको यह जान कर सरकार के खिलाफ भारी गुस्सा आएगा कि एक ओर जहां उसने किसानों से सारी जमीन 800 रुपये प्रति वर्गफुट की दर से ली है तो वही जमीन बिल्डरों, ठेकेदारों और निजी कंपनियों के हाथों 22,000 से 45,000 रुपये प्रति वर्ग फुट की दर बेच रही है। अब ये निजी कंपनियां और बिल्डर उसी जमीन से करोड़ों रुपये बटोरेंगे। जबकि किसानों के हाथ क्या लगेगा? कुछ भी नहीं। 800 रुपये की दर से मिली राशि का भुगतान कब होगा और कैसे होगा कोई नहीं कह सकता लेकिन किसानों की जमीन जबरदस्ती उनसे ले ली गई है। दूसरी तरफ किसान नहीं चाहते कि वह अपनी जमीन मुख्यमंत्री की इस बेहुदा परियोजना में लगाकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाएं। क्योंकि यही जमीन उसकी रोजी-रोटी का जरिया है और यह उसके हाथ से निकल जाने के बाद किसानों के समक्ष भूख से मरने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा।

नहीं गई अंगे्रजीयत मानिसकता
सब कुछ बदला लेकिन अंग्रेजों के जमाने का कानून और अंंग्रेजीयत मानसिकता नहीं बदली। ढेर सारे कानून आज भी अंग्रेज के जमाने के हैं। भूमि अधिग्रहण कानून को ही लीजिए, इसे 1894 ई में अंग्रेजों ने बनाया था। जिसमें साफ तौर पर उल्लेख किया गया है कि देश हित के नाम पर जमीन का अधिग्रहण किसानों की राजी खुशी या जबरदस्ती किया जाएगा। यानी किसान अगर चाहे कि वो अपनी जमीन नहीं देना चाहते हैं तो फिर भी सरकार उनकी जमीन जबरदस्ती ले सकती है। अब सोचिए। आज की सरकार की यह अंग्रेजीयत मानसिकता है या नहीं कि वो आज भी लाठी और बंदुक के बल पर किसानों से उसका जमीन छीन रही है। अंग्रेजों से दो कदम और दूर आज की सरकार ने तो देश हित के नाम पर जमीन किसानों से लेकर निजी कंपनियों, बिल्डरों और भूमाफियाओं को रेबडिय़ों के भाव में बांट रही है। फिर यह काहे का राष्टï्रहित है। कानून को मानना हमारा फर्ज नहीं है। किसानों को किसी भी तरह की परियोजनाओं के लिए अपनी जमीन देने से मना कर देना चाहिए। विकास के लिए जमीन देने का ठेका किसानों ने नहीं ले रखा है।

09 मई 2011

किसानों की जमीन और खून की कोई कीमत नहीं !

विकास के नाम पर जिस तरह किसानों की जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उससे किसानों का उग्र होना स्वाभाविक है। दरअसल यह विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन हड़पने की यह षड्यंत्र है। सड़क, हाइवे बनाने या उद्योग लगाने के नाम पर बेहद कम मुआवजा देकर किसानों को उनकी जमीन देने के लिए बाध्य किया जाता है। और फिर बाद में ये जमीन उद्योगपतियों के हवाले कर दिया जाता है। इसके बाद किसानों को बुरी तरह से पूरे क्षेत्र से बेदखल कर दिया जाता है। इससे किसानों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाता है।

कैसे करेंगे गुजर-बसर
आज भी किसानों की रोजी रोटी का एक मात्र जरिया उनकी जमीन है। अगर यही उनके हाथ से चली जाएगी तो फिर वे क्या जोत-कोढ़ कर खाएंगे। आधी पेट खाकर सोने के लिए मजबूर किसान जमीन छीन जाने के बाद अपने परिवार का गुजारा कैसे करेंगे? ऐसे में किसान नहीं चाहते कि विकास के नाम पर उनकी जमीन की बली चढ़ाई जाए। आखिर हाइवे बनने या मॉल बनने के लिए किसान अपनी जमीन क्यों दे जबकि विकास का लाभ किसानों को बिल्कुल भी नहीं मिला है। सरकार, नेता, सामाजिम कार्यकर्ता किसी को भी इसकी परवाह नहीं है। अब चूंकि किसान हिंसक आदोलन पर उतर आए हैं तो लोगों को लग रहा है कि भोले-भाले किसानों को कोई उकसा रहा है। वास्तव में किसानों को कोई और नहीं बल्कि सरकार की गलत नीति ही उन्हें हिंसक आंदोलन के लिए उकसा रही है।

केवल मुआवजे से काम नहीं चलेगा
क्या सरकार यह वादा करती है कि विकास के नाम पर जमीन देने वाले किसानों को मुआवजे के अलावा जीवन भर पेंशन के रूप अच्छी खासी राशि दी जाएगी। इसके अलावा उनके परिवार के कम से कम एक सदस्य को सरकारी नौकरी और अन्य सुविधाएं दी जाएगी। साथ ही सरकार उन्हें विकास में भागीदार बनाने का भी वादा करे। तभी किसान अपनी जमीन देने के लिए तैयार हो सकते हैं। अगर सरकार ऐसे वादे नहीं करती है तो फिर किसान अपनी जमीन क्यों दे?

06 मई 2011

कुछ तो शर्म करे सरकार

पिछले दिनों पीएसी की बैठक के दौरान सत्ता पक्ष के सदस्यों का जो रवैया सामने आया वह बेहद असंवैधानिक और अनैतिक था। इससे भी ज्यादा शर्मसार करने वाली बात यह थी कि पूरे घटनाक्रम के निर्माता-निर्देशक केंद्र सरकार के ही चार वरिष्ठï मंत्री थे जो बैठक के दौरान संसद भवन परिसर में ही मौजूद थे और वे पीएसी में शामिल सत्ता पक्ष के सदस्यों से लगातार मोबाइल पर बात करते हुए उन्हें निर्देश दे रहे थे। यानी लोकतंत्र और संसद की गरीमा को तार तार कर देने वाला यह वाकया सरकार के षड्यंत्र से हुआ। इससे जनता में स्पष्टï संदेश गया है कि भ्रष्टïाचार के दलदल में फंसी सरकार नहीं चाहती कि इसकी निष्पक्ष चांज हो और जांच रिपोर्ट जनता के सामने आए। इसके लिए सरकार और उसमें शामिल लोग हर कदम पर जांच को बाधा पहुंचाने और उस पर बेबुनियाद आरोप लगाने का काम कर रहे हैं। कितना अशोभनीय है कि जिस सरकार की जिम्मेदारी देश के संवैधानिक संस्थानों की गरीमा को बनाए रखने और भ्रष्टïाचार पर अंकुश लगाते हुए लोगों को निष्पक्ष शासन मुहैया कराना है वही सरकार पूरे संवैधानिक ढांचे को पूरी तरह बर्बाद करने में जी जान से लगी है।

पीएसी में शामिल सत्ता पक्ष के सदस्यों ने जिस तरह मुरली मनोहर जोशी को अक्ष्यक्ष पद से बेदखल करते हुए सैफुद्दिन सोज को पीएसी का अध्यक्ष मनोनित कर दिया वह पूरी तरह असंवैधानिक था। दरअसल पीएसी का अध्यक्ष नियुक्त करने का अधिकार केवल लोकसभा अध्यक्ष को है, न कि पीएससी में शामिल सदस्य अपने मन से अध्यक्ष मनोनित कर सकता है। दूसरी अहम बात यह है कि पीएसी के अध्यक्ष को लोकसभा का सदस्य होना जरूरी है जबकि सोज लोकसभा के नहीं बल्कि राज्यसभा के सदस्य हैं। ऐसे में सोज को पीएसी का अध्यक्ष मनोनित करना पूरी तरह असंवैधानिक था। कुछ तो शर्म करे सरकार।

02 मई 2011

100 में 90 बेइमान है, फिर भी मेरा देश महान है

कुछ चीजों को लेकर मैं पश्चिमी देशों का कायल रहा हूं। वहां की हर चीजें काफी व्यवस्थित और सभी कार्य समय पर होते हैं। लोग बात-बात पर बेवजह सड़कों पर धरना-प्रदर्शन कर लोगों को परेशान नहीं करते। वहां किसी व्यक्ति या पद के आधार पर देश के संसाधनों का भोग नहीं करते बल्कि संसाधनों का उपयोग नागरिक सुविधाओं के लिए किया जाता है। और सबसे अच्छी बात यह है कि वहां त्वरित फैसले लिए जाते हैं। लेकिन इन सबसे ऊपर की विशेषता यह है कि वहां के लोग लापरवाह होकर भी काफी जिम्मेदार और सतर्क होते हैं। वे हमारी तरह राष्टï्रभक्त नहीं पर देश के साथ कभी धोखा नहीं करते। पश्चिमी देशों की यही विशेषता है और यही उसे हमसे काफी आगे करता है।

इसके विपरीत हम भारतीय झूठे और फरेबी ज्यादा हैं। हमारी कथनी और करनी में छत्तीस का आंकड़ा रहता है। जो चीजें सोचते वह करते नहीं और जो करते उसकी भनक खुद को भी नहीं लगती। बात बात पर देश भक्ति की कसमें खाते हैं लेकिन मौका मिलते ही बेइमानी की सारी हदें तोड़ सकते हैं। यहां हर जगह आपको अव्यवस्था और अराजकता नजर आएगी। व्यक्तिगत काम से लेकर सभी सार्वजनिक कम समय पर हो जाएं तो यह आश्चर्य की बात है। रेलगाडिय़ां कभी समय पर नहीं चलती, सरकारी कार्यालय में कौन काम कितने समय में होगा इसकी कोई गांरटी नहीं है। यानी हर जगह लेट लतीफि। हर जगह अव्यवस्था। सरकारें ऐसे कार्य करती है मानो वह सरकार नहीं बल्कि किसी दूसरे देश के सरकार की गुलाम हो। साफ शब्दों में कहें तो अमेरिका की। बात भी सही है सभी बड़े फैसले बगैर अमेरिका की सहमति से नहीं लिए जाते।

फिर भी ऐसे देश को हमेशा हम महान साबित करने की चेष्ठïा क्यों करते हैं। जिस देश में कि 100 में से 90 बेइमान हैं। पश्चिमी देशों की अच्छाइयों और अपने देश की बुराई का बखान कर हम यह जताना चाहते हैं कि भारत की तुलना में पश्चिमी देश आगे क्यों है। हमें साफगोई से अपनी कमियों से स्वीकार करना होगा। कोई देश या समाज अगर हमसे आगे है तो क्यों है।

कुछ बुराइयां भी है
बहरहाल ऐसा नहीं कि पश्चिमी देश हर मामले में बेहतर है। वहां का खुला और उन्मुक्त समाज अपने आप में कई तरह की परेशानियों की जड़ है। इसके चलते समाज का ताना बाना नष्टï हो रहा है। लेकिन दुखद पहलू यह है कि हम पश्चिमी देशों से अच्छाइयां नहीं बुराइयां ग्रहण करते जा रहे हैं। विशेषकर उसी तरह का खुला परिवार। हम पश्चिमी रहन-सहन अपनाकर दरअसल खुद को आधुनिक कहलाना चाहते हैं जबकि हमारी सोच आज भी घटिया है।

वास्तव में हम आधुनिक तभी कहलाएंगे जब हमारी सोच उन्नत हो केवल रहन सहन का तरीका नहीं।