03 जून 2011

विकास दर ऊंची पर जीवन की राह मुश्किल

बीते वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान देश की अर्थव्यवस्था 8.5 फीसदी की दर से बढ़ी। इसे उच्च विकास दर की श्रेणी में ही रखा सकता है। वैसे सरकार चालू वित्त वर्ष में भी 8.5 से 9 फीसदी तक की ऊच्च वृद्घि दर हासिल करने का दावा कर रही है। लेकिन बीते वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही (जनवरी-मार्च 2011) में जीडीपी की वृद्घि दर गिरकर 7.8 फीसदी रह गई जबकि एक साल पहले समान तिमाही में जीडीपी की वृद्घि दर 9 फीसदी रही थी। इसके अलावा छह प्रमुख बुनियादी क्षेत्र के उद्योगों की वृद्घि दर भी केवल 5.4 फीसदी पर सिमट गई। इसके अलावा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) भी लगातार महीनों में घटने के संकेत मिल रहे हैं। कुल मिलाकर कहें कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार लगातार घट रही है। इन सबके बावजूद ताजा आंकड़े बताते हैं कि बीते वित्त वर्ष में देश की आर्थिक विकास दर 8.5 फीसदी रही। खास बात यह है कि यह विकास दर कृषि क्षेेत्र के नकारात्मक प्रदर्शन के बाद भी हासिल कर ली गई। तभी सरकार पूरे दावे के साथ यह कह रही है कि खेती-बारी को छोड़ भी दें तो हम ऊंची विकास दर हासिल करने में सक्षम है।

पर किसे मिल रहा है उच्च विकास का लाभ
सवाल यह उठता है कि ऊंची विकास दर का लाभ किसे मिल रहा है? एक ओर तो अर्थव्यवस्था तेज रफ्तार से आगे बढ़ रही है पर दूसरी तरफ लोगों की जिंदगी और मुश्किल होती जा रही है। आर्थिक विकास का सीधा सा मतलब होता है कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो। पर यहां तो जीवन की राह और कठिन हो गई है। इसकी एक तस्वीर देखिए- महंगाई चरम पर है, पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। बाजार में खाद्य पदार्थों और अन्य उपयोगी वस्तुओं की किल्लत बनी हुई है। ऊंची मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने के लिए बैंकों ने ब्याज दरें दी है, इसके चलते लोगों के लिए कर्ज लेकर घर, कार आदि खरीदना अब बेहद महंगा पड़ेगा। ब्याज दर बढऩा उद्योग जगत के लिए भी भारी पड़ रहा है। औद्योगिक उत्पादन घटने के पीछे उद्योग जगत ने साफ तौर पर महंगे ब्याज को जिम्मेदार ठहराया है। पंूजी की कमी के चलते कंपनियों की विस्तार योजनाएं भी ठप पड़ी है। परिणामस्वरूप उद्योगों में रोजगार के नए अवसर बिल्कुल बंद हो गए हैं। यानी पढ़े लिखे और गैर पढ़े लिखे सबके लिए रोजगार का संकट है। जिन लोगों के पास नौकरी है उसके ऊपर भी हमेशा तलवार लटकती रहती है। बाजार में थोड़ा सा उतार-चढ़ाव आते ही कंपनियां सीधे कर्मचारियों की छंटनी की बात करने लगती है। सामाजिक सुरक्षा नाम की चीज नहीं बची है। कंपनियों को आकर्षित करने के लिए सरकारों ने श्रम कानून को बिल्कुल ढीला छोड़ दिया है। यानी हर तरफ असुरक्षा और मुश्किलें बरकरार है। अन्य सामाजिक योजनाओं की स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। ऐसे में हम कैसे कह सकती है कि उच्च विकास दर देश के ह$क में है। आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं और मजदूर भूख के मारे दम तोड़ रहे हैं। पिछले दस सालों से इनकी स्थिति जहां थी वे इससे और नीचे अी आए हैं।

कंपनियां मालामाल, कर्मचारी पैमाल
हां उच्च विकास दर का लाभ सरकार और कंपनियों को मिला है। सरकार को अपनी पीठ थपथपाने के लिए उच्चा विकास दर का बहाना है। दूसरी तरफ कॉर्पोरेट सेक्टर की चांदी हो रही है। कंपनियों के लाभ दोगने-तीनगुने की बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन उसमें काम करने वाले कर्मचारियों को क्या मिल रहा है? कॉस्ट कटिंग और आर्थिक मंदी का हवाला देकर वे कर्मचारियों को बाहर का दरवाजा दिखा रही है या उनसे ज्यादा काम ले रही है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें