हमें आप पर विश्वास नहीं और आपको हम पर नहीं। अगर विश्वास कर भी लें तो भरोसा कायम नहीं होता। अब तो परिवार के सदस्य भी एक दूसरे पर ज्यादा विश्वास नहीं करने लगे हैं। कारोबारी और ग्राहकी का रिश्ता तो पहले से ही 'अविश्वास' के बंधन पर चल रहा है। यहां तक कि अब तो प्रेमी-प्रेमिका और पति-पत्नी भी एक-दूसरे को अविश्वास की नजर से देखने लगे हैं। पहले से ही बेहद नाजुक विश्वास की डोर अब हर स्तर पर लगातार कमजोर होती प्रतीत हो रही है। यानी हर तरफ विश्वास पर खतरा मंडरा रहा है। इन सबके बीच जनता का अपनी सरकार या अपने नेता पर कैसे विश्वास कायम रह सकता है? दूसरे शब्दों में कहें तो हम और हमारा पूरा समाज 'फेथ डिफिसीट' यानी 'विश्वास का संकट' के दौर से गुजर रहा है।
वर्तमान व्यवस्था से हुआ मोह भंग
विश्वास का यही संकट अपने देश की पूरी व्यवस्था से है। आज हम अपने देश के लोकतंत्र पर कितनों भी गर्व करें लेकिन इस प्रणाली से जनता का विश्वास तेजी से उठ रहा है। पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही लोगों का मोह भंग हो रहा है। नेता पहले ही जनता का विश्वास खो चुके हैं। चुनी हुई सरकार में लोगों का विश्वास नहीं बचा है। तो फिर लोकतंत्र में हमारा विश्वास कैसे कायम रहेगा? दूसरी तरफ सरकार कह रही है आम लोग और तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता लोकतंत्र के लिए खतरा है। सरकार की नजर में अन्ना हजारे, उनके साथियों और उनको समर्थन दे रहे आम लोग लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुके हैं। इनकी गतिविधियों से लोकतांत्रिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास उठ जाएगा। लेकिन जिस व्यवस्था से हमारा विश्वास पहले ही उठ चुका है उसे और कितना ऊपर उठाया जाए।
वेबफाई के किस्से अब हो गए आम
नेता और जनता के बीच वेबफाई के किस्से अब आम हो गए हैं। और सभी लोग समझ चुके हैं कि नेता हमें धोखा देने और वेबकूफ बनाने के लिए ही बना है। इनकी कथनी और करनी में भारी फर्क है। वास्तव में पूरी व्यवस्था में विश्वास का संकट पैदा करने वाला असली खिलाड़ी यही है। दूसरी तरफ, प्रशासनिक व्यवस्था विश्वास के लायक नहीं बची है। लोगों को सुरक्षा का भरोसा देने वाली पुलिस पर लोग कैसे विश्वास करे? अपने हक की लड़ाई लड़ रहे किसानों पर वह गोली बरसाती है, नाबालिक बच्ची के साथ बलात्कार करने के बाद उसे मारकर दफना देती है, पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने पर उसे जान से मारदेने की धमकी दी जाी है, वगैरह..वगैरह..। इस तरह की घटनाओं की फेहरिस्त लंबी है। जरा सोचें, कैसे करें पुलिस और प्रशासन पर विश्वास?
न्याय के मंदिर से भी टूट रहा भरोसा
लोगों की अंतिम आस न्यायपालिका से रहती है। पर सब लोग जानते हैं कि मुकदमा तो पैसों का खेल है। पैसे के बल पर मनचाहा केस बनवा सकते हैं, किसी केस में आपका नाम है तो उसे कटवा सकते हैं या फिर मोटी रकम देकर अच्छा वकील चुन सकते हैं जो अपने चतुर दिमाग का इस्तेमाल करते हुए कानून की मनमर्जी व्याख्या कर फैसला अपने हक में ले जाते हैं। बात इससे भी नहीं बनी तो जज साहब हैं न। प्राइवेट में उनसे मिलकर पहले ही फैसले की कॉपी तैयार करा सकते हैं और अगले दिन अदालत में मनमुताबिक फैसले की घोषणा हो जाएगी। बस इसके लिए खर्च करने होंगे बेहिसाब धन। बात यहां भी नहीं बनी तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट है ना। फैसलों को अलटने-पलटने में ये अदालत माहिर हैं। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे- एक ही कानून, एक ही मामला, मामले से जुड़े वही लोग, सबूत भी कुल मिलाकर एक जैसा पर अदालत के फैसले अलग-अलग। मतलब जज बदला, कोर्ट बदला तो मुकदमे की सुनवाई का नजरिया ही बदल गया। एक अदालत की नजर में कोई व्यक्ति दोषी और उसे दूसरी अदालत में उसे बाय इज्जत बरी कर दिया जाता है। आप किस पर करेंगे विश्वास? अपने देश के महान कानून पर, माननीय और सर्वोच्च विश्वसनीय न्यायालय पर या फिर भगवान तुल्य न्यायाधीश पर? विश्वास कीजिए मगर न्याय का भरोसा मत कीजिए, क्योंकि यह भरोसा कभी भी टूट सकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें