09 फ़रवरी 2011

धर्मनिरपेक्षता नहीं सर्वधर्म एकता है जरूरी

देश के तमाम तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संगठनों (चाहे वह राजनीतिक हो या गैर राजनीतिक) ने कभी सर्वधर्म एकता की दिशा में कोई पहल क्यों नहीं की? क्या धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति नैतिक समर्थन जाहिर करना भर रह गया है, या फिर सही मायने में उनकी तरक्की की दिशा में कुछ करना भी जरूरी है।

भारत में अब तक ऐसा एक भी उदाहरण सामने नहीं आता है जिसमें यह प्रतीत होता हो कि किसी संगठन ने सभी धर्मों और विभिन्न समुदायों की बीच एकता स्थापित करने की दिशा में कोई कदम उठाया हो। सांप्रदायिक शक्तियों की जितनी निंदा की जाए वह कम है क्योंकि वे खुलेआम धार्मिक आधार पर भावनाएं भड़काने का काम करते हैं। लेकिन देश में सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाडऩे में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संगठनों का भी कम योगदान नहीं रहा है। ऐसे कई उदाहरण सामने हैं जिसमें धर्मनिरपेक्षता की आढ़ में वे कथिर तौर पर एक किसी धर्म विशेश की भावनाएं भड़काने का ही काम करते हैं। वे विभिन्न धर्मों के बीच दूरियां बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं कि सभी धर्मों को करीब लाने का काम। सच तो यह है कि धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के बीच अब अंतर कर पाना मुश्किल हो गया क्योंकि दोनों का काम कुल मिलाकर एक जैसा ही रह गया है।

राजनीतिक दल तो केवल वोट की राजनीति के लिए अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति हमदर्दी जताते हैं जबकि उनकी तरक्की के लिए कभी कोई कदम नहीं उठाते। इसका प्रमाण यह है कि आजादी के बाद 60 साल के इतिहास में 50 साल से ज्यादा समय तक सत्ता कांग्रेस पार्टी के हाथ में रही है जो खुद को सबसे मजबूत धर्मनिरपेक्ष दल मानती है। फिर भी अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? क्या किसी ने धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से यह सवाल किया कि धर्मनिरपेक्ष विचारधार का मतलब क्या होता है? केवल सांप्रदायिक शक्तियों से भय दिखाकर उन्हें सुरक्षा की गारंटी देना या कथित तौर पर हिंंदु धार्मिक संगठनों को गाली देना भर रह गया है।

यही सही है कि देश में अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज खुद को आज भी सबसे ज्यादा असुरक्षित मानता है। लेकिन इसके पीछे कई कारण रहे हैं। मैं इसके विस्तार में जाना नहीं चाहता। लेकिन देश में मुस्लिक समाज के अलावा पारसी, सिख, जैन, इसाई और वे लोग जो खुद को जाति या धर्म के बंधन से मुक्त मानते हैं भी अल्पसंख्यक समुदाय के दायरे में ही आते हैं। बल्कि कहें ये सही मायने में देश में अल्पसंख्यक हैं क्योंकि ये किसी भी क्षेत्र या स्थान विशेष में इन समुदायों का प्रभुत्व नहीं है। फिर भी वे मुस्लिम समाज की तुलना में खुद को ज्यादा सुरक्षित मानते हैं और वे हमेशा से समाज की मुख्य धारा में ही रहे हैं। यही कारण है कि वे तरक्की की राह में सबसे आगे हैं।

मुस्लिम समुदाय की आबादी हिन्दू के बाद सबसे ज्यादा है। इसके बाद भी अल्पसंख्यक के नाम पर केवल मुस्लिम समाज की बात सामने क्यों जाती है। जबकि हर क्षेत्र में आज भी मुस्लिम समाज के लोग चोटी पर पहुंच चुके हैं। राजनीति, विज्ञान, खेल, फिल्म, बिजनेस, पत्रकारिता अन्य क्षेत्रों में चोटी पर पहुंच चुके व्यक्तियों जैसे पी जे अब्दुल कलाम, आर रहमान, आमिर, सलमान, शाहरुख, सानिया, जाहिर, पठान, हामिद अंसारी आदि सैकड़ों नाम हैं जिसे हर हिन्दुस्तानी खुद से भी ज्यादा प्यार करते हैं। उन्हें यह प्यार किसी धर्म विशेष को लेकर नहीं बल्कि देश के प्रति उनके योगदान, काम के प्रति समर्पण के लिए मिलता है।

सही मायने में अल्पसंख्यक समुदाय (विशेष तौर पर मुस्लिम समाज) की सुरक्षा तभी हो पाएगी जब देश में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच की दूरियां मिटेंगी। उन्हें अल्पसंख्यकवाद के संकुचित दायरे से बाहर आना होगा और उन्हें अपनी तरक्की के लिए खुद ही संघर्ष करना पड़ेगा। सरकार या किसी संगठन से मदद की आस रखना बेकार है। यह मान कर चलें कि जो लोग हमेशा से आपके लिए हमदर्दी जताते रहे हैं उनका काम केवल हमदर्दी जताना भर रह गया है, कुछ करना नहीं। आर्थिक और सामाजिक तौर पर आगे आने के लिए किसी की बैशाखी को छोड़ खुद के पैरों पर खड़ा होना और फिर चलना सीखना होगा।

जब देश में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच की दूरियां और पहचान मिटेंगी तभी समाज भी तरक्की करेगा और देश भी। इससे सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वर्षों से राजनीति करने वालों को भी करारा जवाब मिलेगा।

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